परिचय

गुरुवार, 31 मई 2007

भिखारी

चुनाव के मॊसम में
एक भिखारी
मेरे दरवाजे पर आता हॆ
भविष्य के-
सुनहरे स्वप्न दिखाकर
लूट ले जाता हॆ.
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चुनावी-haथकंडे

चुनावी-हथकंडे
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छोटी बातें
भाषण लम्बे.
झण्डे
डण्डे
ऒर मुसटण्डे.
कुछ ऒर नहीं
चुनावी-हथकंडे.
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बुधवार, 30 मई 2007

मॆ ऒर तुम

मॆं/नहीं चाहता
कि-तुम
ऒपचारिकता का लिबास/पहनकर
मेरे नजदीक आओ.
अपने होंठों पर
झूठ की लिपस्टिक/सजाकर
सच को झुठलाओ.
या फिर-
देह-यष्टि/चमकाने के लिए
सुगंधित साबुन
या फिर इत्र लगाओ.
मॆं/चाहता हूं
कि-तुम
अपनी असली झिलमिलाहट के साथ
मुझसे लिपट जाओ.
मेरे/सुसुप्त भावों को
कामदेव-सा जगाओ
ओर फिर-
दो डालें
हवा में लहराने लगें
होती हुई एकाकार.
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सोमवार, 28 मई 2007

चुप्पी

उन्हें-
कहने दीजिये
हमें-
चुप्प रहने दीजिये।
उनका-
कुछ भी कहना व्यर्थ हॆ
जब तक आदमी सतर्क हॆ
ऒर-
हमारी चुप्पी का भी
एक विशेष अर्थ हॆ।
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रविवार, 27 मई 2007

जांच-आयोग

हमने-
एक खद्दर-घारी नेता से पूछा
ये जांच-आयोग क्या बला हॆ ?
वो मुस्कराकर बोले-
उठे हुए मामले को
दबाने की आधुनिक कला हॆ।
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शुक्रवार, 25 मई 2007

ख्वाब

ख्वाब
तुम भी देखते हो
हम भी देखते हॆ।
तुम्हारे-
ख्वाबों में हॆ-
दूघ पीता/अलसेशियन
पालतू कुत्ता,
दिन में-
दस बार
साडियां बदलती
देशी जिस्म में
विदेशी बीबी
ऒर-
हमारी कब्र पर
एक के बाद एक
खडी होती
ऊंची अट्टालिकाएं।
हमारे ख्वाबों में हॆं-
मां के-
सूखे स्तन चिचोडता
बच्चा।
फटी धोती में
पूरे जिस्म को
ढापने की कोशिश करती
-एक युवती।
ऒर-
घर बनाते-
बेघर
खुले आसमान के नीचे
रहने को मजबूर
कुछ मजदूर।
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गुरुवार, 24 मई 2007

नकाब

मॆंने-
सिलवाकर रखे हॆं
कई नकाब।
जॆसे भी
माहॊल में जाता हूं
वॆसा ही-
नकाबपोश हो जाता हूं।
तब लोग-मुझे नहीं
मेरे नकाब को जानते हॆं।
ऒर-
मेरी हर बात को
पत्थर की लकीर मानते हॆ।
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dhabhasष

विरोधाभास
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वो हमें
निर्धन ऒर गरीब
बताते हॆं।
ऊपर उठाने के लिए
सुन्दर,सुकोमल-स्वप्न
दिखाते हॆं।
लेकिन अफसोस-
हमारे सामने ही
झोली फॆलाते हॆं।
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’न’ ऒर ’अ’

’तुम उसे जानते हो ?’
’नहीं.’
’पहचानते हो ?’
’नहीं.’
’कहीं देखा ?’
’नहीं.’
जानते हो...नहीं !
पहचानते हो...नहीं !!
कहीं देखा...नहीं !!!
नहीं!नहीं!!नहीं!!!
फिर भी...
मूर्ख !...अंधविश्वासी !!...हठधर्मी !!!
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