पहले-
पुलिस को देखकर
बच्चे घरों में दुबक जाते थे.
लुच्चे,लफंगे ऒर बदमाश
सामने आने से घबराते थे.
अब-
पुलिसवाला
बच्चों से घबराता हॆ,
लुच्चे,लफंगे,बदमाशों को देखकर
चुपचाप निकल जाता हॆ.
अरे !
मॆनें तो यहां तक सुना हॆ
कि आजकल-
हर बदमाश
पुलिसवाले को ’बडा भाई’
कहकर बुलाता हॆ.
पुलिसवाला भी-
बडे भाई का दायित्व
पूरी तरह से निभाता हॆ
य़ह बात अलग हॆ
कि कुछ कमीशन खाता हॆ.
****
मेरे जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों की काव्यात्मक अभिव्यक्ती का संग्रह हॆ- यह ’नया घर’. हो सकता हॆ मेरा कोई अनुभव आपके अनुभव से मेल खा जाये- इसी आशा के साथ ’नया घर’ आपके हाथों में.
परिचय
मंगलवार, 23 अक्तूबर 2007
रविवार, 7 अक्तूबर 2007
ना लायक हॆ.
हमने उनसे पूछा-
आपका बेटा-बेकूफ हॆ?
वो बोले-
’ना लायक’ हॆ.
आत्मनिर्भरता
==========
वो-
पहले-पडे थे
अब-
खडे हॆं
चलो-
आत्मनिर्भरता की ओर
कुछ तो बढे हॆं.
**********
आपका बेटा-बेकूफ हॆ?
वो बोले-
’ना लायक’ हॆ.
आत्मनिर्भरता
==========
वो-
पहले-पडे थे
अब-
खडे हॆं
चलो-
आत्मनिर्भरता की ओर
कुछ तो बढे हॆं.
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शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2007
सूरज निकल रहा हॆ
सूरज निकल रहा हॆ
ऒर तुम
सो रहे हो.
स्वपनों की दुनिया में
कहां खो रहे हो.
स्वपन सिर्फ स्वपन होते हे.
सुनहरे स्वपन
रुपहले स्वपन
मीठे-मीठे
जहरीले स्वपन.
ओ भईया! कपडा बनाने वाले
ओ भईया! अनाज उपजाने वाले
अरे ओ बाबू! दफ्तर को जाने वाले
जरा आंखें खोलो तो
ये खिडकी,दरवाजे खोलो तो
देखो बाहर-
लाल-लाल सूरज
कॆसे निकल रहा हॆ?
पहाडियों के पीछे से
वह धीरे-धीरे
हमारी ओर बढ रहा हॆ.
झरनों की कल-कल
पंछियों का कलरव
कॆसे तत्पर हॆं-
उगते हुए सूर्य का
स्वागत करने को.
उठो! तुंम भी उठो!
ऎ मेरे कवि-मित्र!
सूर्य की रोशनी
देहली पर दस्तक दे रही हॆ
ओर तुंम-
अभी तक
सो रहे हो.
न जाने -
कल्पना की
किस दुनिया में
खो रहे हो.
तुमसे तो नहीं थी
ऎसी उम्मीद
आओ! मेरे साथ आओ
यथार्थ के घरातल पर आओ
नव-जागरण के गीत गाओ.
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ऒर तुम
सो रहे हो.
स्वपनों की दुनिया में
कहां खो रहे हो.
स्वपन सिर्फ स्वपन होते हे.
सुनहरे स्वपन
रुपहले स्वपन
मीठे-मीठे
जहरीले स्वपन.
ओ भईया! कपडा बनाने वाले
ओ भईया! अनाज उपजाने वाले
अरे ओ बाबू! दफ्तर को जाने वाले
जरा आंखें खोलो तो
ये खिडकी,दरवाजे खोलो तो
देखो बाहर-
लाल-लाल सूरज
कॆसे निकल रहा हॆ?
पहाडियों के पीछे से
वह धीरे-धीरे
हमारी ओर बढ रहा हॆ.
झरनों की कल-कल
पंछियों का कलरव
कॆसे तत्पर हॆं-
उगते हुए सूर्य का
स्वागत करने को.
उठो! तुंम भी उठो!
ऎ मेरे कवि-मित्र!
सूर्य की रोशनी
देहली पर दस्तक दे रही हॆ
ओर तुंम-
अभी तक
सो रहे हो.
न जाने -
कल्पना की
किस दुनिया में
खो रहे हो.
तुमसे तो नहीं थी
ऎसी उम्मीद
आओ! मेरे साथ आओ
यथार्थ के घरातल पर आओ
नव-जागरण के गीत गाओ.
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