एक साहित्यकार का रोजनामचा
सुबह उठा
देर तक अखबार चाटा.
ऒर भ्रष्टाचार के लिए
वर्तमान सरकार को डांटा।
नाश्ता किया
डाक देखी
’रचना स्वीकृति’ का
कोई समाचार नहीं मिला
मन ही मन
खूब कहा-सम्पादकों को बुरा-भला।
दफ्तर गया
अधिकारी से झगडा हुआ
सहकर्मियों को ’एकता का महत्व’ समझाया
लेकिन-कोई फायदा नहीं हुआ।
शाम को-
एक गोष्ठी में
गंभीर विषय पर भाषण दिया
थोडी तालियां बजीं
मन प्रस्न्न हुआ।
गोष्ठी खत्म हुई
घर लोट आया
थोडा खाना खाया
पत्नी ने-
घर-गृहस्थी का दुःखडा
आज भी सुनाया
मन दुःखी हुआ
कागज ऒर पॆन उठाया
देर रात तक कुछ लिखा
लिफाफे में बंद किया
ऒर-सो गया.
3 टिप्पणियां:
बढ़िया है।
बहुत सही हालात बयानी की है. बढ़िया!
बढि़या है।जागने के बाद फिर से लिखिये।
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