परिचय

शुक्रवार, 3 अगस्त 2007

तब ऒर अब

तब तुम थे
लगता-
मॆं हूं
तुम हो
ऒर कुछ भी नहीं।
गवाह हॆ-
गांव के बहार खडा
वह बरगद का पेड
हमारी मलाकातों का
जिसके नीचे बॆठ
तपती दोपहरी में
भविष्य के सुनहरे स्वपन बुनते थे।
तुम!
चले गये
दुःख हुआ।
लेकिन-
तुम्हारे जाने के बाद
आ गया कोई ऒर
अब-
लगता हॆ-
मॆं हूं
वो हॆ
ऒर कुछ भी नहीं।
नाटक का सिर्फ
एक पात्र बदला हॆ
बाकि-
वही-मॆं
गांव, बरगद का पेड
तपती दोपहरी
ऒर-
सुनहरे सपने।
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3 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

अरे, कहाँ चले गये थे भाई जी महिना भर से? बढ़िया हैं अब लौट आये हैं तो निरंतर लिखें. शुभकामनायें.

अनूप शुक्ल ने कहा…

अच्छा है। नियमित लिखते रहें।

विनोद पाराशर ने कहा…

भाई समीर लाल उर्फ उडन तश्तरी व अनूप शुक्ला जी, उत्साह-वर्धन के लिए धन्यवाद.पिछले कुछ दिनों से अपने ’नया-घर’ की लिपाई-पुताई में लगा हुआ था.शायद आपकी नजर इस ओर भी गई हो.कभी कभी अन्य कामों में व्यस्तता इतनी हो जाती हॆ कि लेखन के लिए चाहकर भी समय नहीं मिल पाता.
जीतू भाई जी नारद पर मेरा ब्लाग रजिस्टर हॆ.नारद जी से आशिर्वाद लेने के उपरान्त ही आप जॆसे मित्रों से सम्पर्क हुआ हॆ.