मेरे जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों की काव्यात्मक अभिव्यक्ती का संग्रह हॆ- यह ’नया घर’. हो सकता हॆ मेरा कोई अनुभव आपके अनुभव से मेल खा जाये- इसी आशा के साथ ’नया घर’ आपके हाथों में.
परिचय
शनिवार, 1 सितंबर 2007
गजल - मेरे शहर को यह क्या हुआ हॆ?
गजल
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मेरे शहर को ये क्या हुआ हॆ
जिधर भी देखो धुंआ ही धुंआ हॆ।
मुद्दत से हॆ ख्वाईश कि गुलाब देखेंगे
मगर चमन तो मेरा सूखा हुआ हॆ.
बचपन से सीधा यहां आता हॆ बुढापा
जवानी का आना महज सपना हुआ हॆ।
सुना हॆ यहां भी रहती थी चिडिया
अब हर शाख पर उल्लू बॆठा हुआ हॆ।
किसको कहें,कॆसे कहें,मन की बात
हवा ऎसी चली हॆ कि आदमी बहरा हुआ हॆ।
खोलता नही कोई बंद खिडकियां यहां
दूरदर्शन का ऎसा सख्त पहरा हुआ हॆ।
तुम मेरी आखों में देखो तो सही
एक अरसे से तूफान ठहरा हुआ हॆ।
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