परिचय

मंगलवार, 10 जुलाई 2007

गजल
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चार अक्षर क्या पढ गया बेटा
कुछ ज्यादा ही अकड गया बेटा।
न राम-रहीम, न दुआ-सलाम
’ऒ’ ’टा-टा’ से लिपट गया बेटा
कुछ ज्यादा ही.......बेटा।
कहां गई वो मर्दानी मूछ-दाडी
नपुसंकों की जमात में मिल गया बेटा
कुछ ज्यादा ही........बेटा।
बाहर से हीरो, अन्दर से जीरो
यह किस चक्कर में पड गया बेटा
कुछ ज्यादा ही........बेटा।
न रहे अपने ऒर न ही अपनापन
यह कॆसा दॊर चल गया बेटा ?
कुछ ज्यादा ही.........बेटा।
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रविवार, 8 जुलाई 2007

एक साहित्यकार का रोजनामचा
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सुबह उठा
देर तक अखबार चाटा.
बढती मंहगाई,बेरोजगारी
ऒर भ्रष्टाचार के लिए
वर्तमान सरकार को डांटा।
नाश्ता किया
डाक देखी
’रचना स्वीकृति’ का
कोई समाचार नहीं मिला
मन ही मन
खूब कहा-सम्पादकों को बुरा-भला।
दफ्तर गया
अधिकारी से झगडा हुआ
सहकर्मियों को ’एकता का महत्व’ समझाया
लेकिन-कोई फायदा नहीं हुआ।
शाम को-
एक गोष्ठी में
गंभीर विषय पर भाषण दिया
थोडी तालियां बजीं
मन प्रस्न्न हुआ।
गोष्ठी खत्म हुई
घर लोट आया
थोडा खाना खाया
पत्नी ने-
घर-गृहस्थी का दुःखडा
आज भी सुनाया
मन दुःखी हुआ
कागज ऒर पॆन उठाया
देर रात तक कुछ लिखा
लिफाफे में बंद किया
ऒर-सो गया.

शुक्रवार, 6 जुलाई 2007

फर्क

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फर्क
कोई खास नहीं हॆ
तुम्हारे ऒर मेरे बीच
तुम-
खांसते हो,
खखारते हो,
ऒर एक बेचॆनी सी महसूस करते हो।
मॆ-
खांसता हूं
खखारता हूं
एक बेचॆनी सी महसूस करता हूं
ऒर-
उस बेचॆनी को
उलट देता हूं
एक कागज पर
तुम अगर चाहो तो
इसे कविता कह सकते हो।
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गुरुवार, 5 जुलाई 2007

Vinod Prashar

 
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मंगलवार, 3 जुलाई 2007

तॊलिया,इजिचेअर ऒर वेटिंग-रूम

मॆं-
खूंटी पर टंगा
कोई तॊलिया तो नहीं
कि-
हर कोई आये
ऒर फिर चला जाये
अपने जिस्म को
मेरे जिस्म से रगडकर
छॊड जाये
अपने जिस्म के गंदे किटाणु
मेरे जिस्म पर।
*
मॆं-
घर के कॊने में पडी
कोई ईजी-चेअर तो नहीं
कि-
हर कोई आये
ऒर फिर चला जाये
अपने भारी-भरकम शरीर को
कुछ देर
मुझ पर पटकर
यह भी न देखे
कि मेरी टांगें लडखडा रही हॆ।
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मॆं
रेलवे-स्टेशन का
वेटिंग-रुम तो नहीं
कि-हर मुसाफिर
ट्रेन से उतरकर
मुझमें कुछ देर ठहरे
ऒर-फिर
चला जाये
नयी ट्रेन आने पर।
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रविवार, 1 जुलाई 2007

sambanध

संबंध
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मुश्किल होता हॆ-
आंधियों के बीच
दीपक की लॊ को बचाये रखना।
या फिर-
काजल की कोठरी से
गुजरते हुए-
अपने चेहरे को
साफ-सफेद बनाये रखना।
’लॊ’ को बचाने की कॊशिश में
हाथ झुलस जाते हॆं
लेकिन-
हाथ झुलसने की पीडा
’दीपक’ या ’लॊ’
कहां समझ पाते हॆ।
चेहरे की सफेदी
बनाये रखने की कॊशिश में
पूरा अन्तर्मन छिल जाता हॆ
कोठरी का काजल
अन्तर्मन की पीडा
कहां समझ पाता हॆ।
सच !
बहुत मुश्किल होता हे-
किसी को-
अपनी आंखों में बसाये रखना
या फिर-
संबंधों को बनाये रखना।
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