मेरे जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों की काव्यात्मक अभिव्यक्ती का संग्रह हॆ- यह ’नया घर’. हो सकता हॆ मेरा कोई अनुभव आपके अनुभव से मेल खा जाये- इसी आशा के साथ ’नया घर’ आपके हाथों में.
परिचय
रविवार, 8 अगस्त 2010
आफिस की ये फाईलें
आफिस की ये फाईलें-
मेरे सपने में आती हॆं
कभी हंसती हॆ
कभी रोती हॆ
कभी चिडाती हॆं
कभी डराती हॆं
तो कभी धमकाती हॆं.
आफिस की ये फाईलें-
मेरे सपने में आती हॆं.
ये फाईलें-
सिर्फ कागज का पुलिंदा नहीं हॆं
हर फाईल के पीछे
छुपा हॆ एक चेहरा
जो न तो गूंगा हॆ
ऒर न ही बहरा.
यह चेहरा
कभी-कभी मेरे सामने-
आकर खडा हो जाता हॆ
अजीब-अजीब सी
शक्लें बनाता हॆ.
कभी हाथ जोडता हॆ
कभी मुस्कराता हॆ
कभी रोता हॆ
कभी गिडगिडाता हॆ
तो कभी-
मुट्ठी तानकर-
खडा हो जाता हॆ.
सच कहूं-
कभी-कभी तो
मॆं बहुत छोटा
ऒर ये चेहरा-
बहुत बडा हो जाता हॆ.
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सोमवार, 1 मार्च 2010
सभी बुड्ढे हुए जवान, इस होली में
क्यों सोता चद्दर तान ,इस होली में?
सभी बुड्ढे हुए जवान, इस होली में
बाहर निकल कर देख जरा तू
क्यों बॆठा हॆ,अपनी ही खोली में ?
किसने किसको कब,क्या बोला ?
मत रख अब तू ध्यान, इस होली में
खट्टा-कडवा ,अब कब तक बोलेगा?
मिश्री-सी दे तू घोल, अपनी बोली में
माना की जीवन में दु:ख ही दु:ख हॆ
अपनी गठरी दे तू खोल,इस होली में
न हिन्दू,न मुस्लिम, ,न सिख,न ईसाई
सभी बने जाते इन्सान, इस होली में.
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