परिचय

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2007

thaboध

अर्थबोध
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कुछ वर्ष पहले-
सिफारिश,रिश्वत
ऒर
बेईमानी जॆसे
आसान शब्दों के अर्थ
पकडने के लिए
मॆं
इनके पीछे दॊडता था.
लेकिन-
अब ये शब्द
अपने अर्थ समझाने के लिए
मेरे पीछे दॊडते हॆ.

अभिमन्यु का आत्मद्वन्द्व

आज/फिर
कॊरवों ने
मेरे चारों ओर
चक्रव्यूह रचा हॆ।
मॆं/नहीं चाहता
चक्रव्यूह से निकल भागना
चाहता हूं
इसे तोडना।
लेकिन-
नहीं तोड पा रहा हूं।
काश!
तुम
कुछ देर ऒर
न सोयी होती
मां।
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बुधवार, 25 अप्रैल 2007

गुब्बारा

क्या-मॆं
तुम्हारे लिए
सिर्फ एक गुब्बारा हूँ
जिसमें जब जी चाहे
हवा भरो
कुछ देर खेलॊ
ऒर फिर फोड दो।
काश !
तुम भी गुब्बारा होते
कोई हवा भरता
कुछ देर खेलता
ऒर फिर-फोड देता
तब तुम
समझ पाते
एक गुब्बारे के फूटने का दर्द
क्या होता हॆ?
किसी बडे या बच्चे के द्वारा
गुब्बारा फोडे जाने में
बडा भारी अन्तर होता हॆ।
बच्चा-
स्वयं गुब्बारा नहीं फोडता
बल्कि गुब्बारा उससे फूट जाता हॆ।
वह गुब्बारा फूटने पर
तुम्हारी तरह कहकहे नहीं लगाता
ब्लकि-
रोता,गिडगिडाता या फिर
आँसू बहाता हॆ।
ऒर फिर-
तुमनें तो
बाँध लिया था
मुझे एक घागे से
ताकि तुम्हारी मर्जी से उड सकूँ।
तुम कभी धागे को
ढीला छोड देते थे
तो कभी-अपनी ऒर खींच लेते थे।
आह!
कितना खुश हुआ था-मॆं
जब तुमने-
धागे को स्वयं से जुदा करते हुए
कहा था-
कि-अब तुम आज़ाद हॊ।
लेकिन-
हाय री विडम्बना !
ये कॆसी आज़ादी ?
कुछ देर बाद ही
तुमनें जेब़ से पिस्तॊल निकाली
ऒर लगा दिया निशाना
मेरा अस्तित्व !
खण्ड-खण्ड हो
असीम आकाश से
कठोर धरातल पर आ पडा।
काश!
मॆं गुब्बारा न होता
ऒर अगर होता
तो मुझमें
गॆस नहीं-
हवा भरी होती-हवा
वही हवा
जो नहीं उडने देती
गुब्बारे को
खुले आकाश में।
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सोमवार, 23 अप्रैल 2007

कूप-मंडूक

तब ऒर अब
भूत ऒर वर्तमान
तब-मॆं भूत था
लेकिन-अब वर्तमान।
मेरा भूत-कूप-मंडूक
सोचता था-सर्वग्य़ानी हूं।
आकाश में....
एक...दो...दस...बस
इतने ही तारे हॆ।
दुनिया इस कुएं से बडी नही
जिसमें मॆं रोज धूमता हूं।
लेकिन-
वर्तमान से सामना होते ही
टूट गई-कुएं की मुंडेर
ऒर-अब
खुले दल-दल में फंसा
कर रहा हूं कोशिश
सर्वग्यानी होने की।
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जब भी कोई शख्स

जब भी कोई
हंसता,गाता
या रोता हॆ
या फिर
आंखों में नमी भर
परेशान होता हॆ
तब-तब मॆं
उसके कंधॊं के पास पहुंच
उस जॆसा हो जाता हूं
रोता,हंसता या गाता हूं
या फिर मॆं भी
नम आंखें ऒर
परेशानी का तूफ़ान
हाथों में उठाय़े
आकाश को कंपकंपाता हूं
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मंगलवार, 17 अप्रैल 2007

प्रश्न:एक

जब भी
कलम उठाता हूं
असंख्य प्रश्न
मेरे चारो ऒर
मुंह बाये
खडे हो जाते हॆ।
धीरे-धीरे
कलम छोटी-
ऒर प्रश्न
बडे हो जाते हॆ।
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प्रश्न:दो

प्रश्न-दर-प्रश्न
प्रश्नों की
एक अंतहीन कतार
कई बार-
जी चाहता हॆ
फेंक दूं\ये कलम
ऒर उठा लूं-
मशाल.
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रविवार, 15 अप्रैल 2007

नया घर

नहीं मेरे दोस्त
कुछ नहीं होगा
इस घर की कुछ ईंटे बदलने से।
यदि कुछ करना चाहते हो
तो पहले इसकी हर दीवार गिराऒ
ऒर फिर-
उस जगह पर
नया घर बनाऒ।
नयी खिडकियां
नये दरवाजे
नये रोशनदान
इस तरह से लगाओ
कि-
घर का कोई कोना
तुम पर
न लगा सके
पक्षपात का आरोप।
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स्वागतम

सभी मित्रों का ’नया घर’ में स्वागत हॆ.