मॆं-नहीं चाहता
कि तुम
ऒपचारिकता का लिबास पहनकर
मेरे नजदीक आओ.
अपने होठों पर
झूठ की लिपिस्टिक लगाकर
सच को झुठलाओ
या देह-यष्टि चमकाने के लिए
कोई सुगंधित साबुन
या इत्र लगाओ.
मॆं-चाहता हूं
कि तुम
अपनी असली झिलमिलाहट के साथ
मुझसे लिपट जाओ.
मेरे सुसुप्त भावों को
कामदेव-सा जगाओ
ओर फिर-
दो डालें
हवा में लहराने लगें
होती हुई एकाकार.
*******
मेरे जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों की काव्यात्मक अभिव्यक्ती का संग्रह हॆ- यह ’नया घर’. हो सकता हॆ मेरा कोई अनुभव आपके अनुभव से मेल खा जाये- इसी आशा के साथ ’नया घर’ आपके हाथों में.
परिचय
रविवार, 30 दिसंबर 2007
शनिवार, 29 दिसंबर 2007
सुनाओ अपना हाल जी,मुबारक नया साल जी.
सुनाओ अपना हाल जी,
मुबारक नया साल जी
तुम्हारी बढती तोंद क्यों?
हमारे पिचके गाल जी.
तुम तो खाऒ हलवा-पूरी
मजा न आये बिन अंगूरी
इच्छा हो जाये सारी पूरी
हमको रोटी-दाल जी
सुनाओ अपना हाल जी
मुबारक नया साल जी.
कॆसे मोटे हो गये लाला?
देश का क्यों निकला दिवाला?
जरुर दाल में कुछ हॆ काला
उठते बहुत सवाल जी
सुनाओ अपना हाल जी
मुबारक नया साल जी.
’गांधी-बाबा’ तुम भोले थे
’अहिंसा’पर क्यों बोले थे
वो सपने क्या सलॊने थे
यहां तो रोज होते हलाल जी
सुनाओ अपना हाल जी
मुबारक नया साल जी.
यह आजादी धोखा हॆ
कुर्सी का खेल अनोखा हॆ
खून किसी ने शोखा हॆ
’जोखें’ करे कमाल जी
सुनाओ अपना हाल जी
मुबारक नया साल जी.
****************
शुक्रवार, 21 दिसंबर 2007
आज बहुत सर्दी हॆ
आज बहुत सर्दी हॆ
पक्षियों का चहचहाना,
फूलों का मुस्कराना,
ऒर-कोयल की कूक से,
मंत्र-मुग्ध हो जाना,
खत्म हो गया हॆ.
आज बहुत सर्दी हॆ
रामलाल-
सेठ के यहां,
मजदूरी कम मिलने पर,
नहीं चिल्लायेगा,
चुपचाप आ जायेगा.
आज बहुत सर्दी हॆ
शरीर का हर अंग
शून्य हो गया हॆ,
तभी तो-
किसी अंग के
काट दिये जाने पर भी
दर्द नहीं होता.
आज बहुत सर्दी हॆ
सब-कुछ बर्फ हो गया हॆ,
रक्त जम गया हॆ,
तभी तो-
किसी कली को कुचला देख,
हमारा खून नहीं खोलता.
**********
पक्षियों का चहचहाना,
फूलों का मुस्कराना,
ऒर-कोयल की कूक से,
मंत्र-मुग्ध हो जाना,
खत्म हो गया हॆ.
आज बहुत सर्दी हॆ
रामलाल-
सेठ के यहां,
मजदूरी कम मिलने पर,
नहीं चिल्लायेगा,
चुपचाप आ जायेगा.
आज बहुत सर्दी हॆ
शरीर का हर अंग
शून्य हो गया हॆ,
तभी तो-
किसी अंग के
काट दिये जाने पर भी
दर्द नहीं होता.
आज बहुत सर्दी हॆ
सब-कुछ बर्फ हो गया हॆ,
रक्त जम गया हॆ,
तभी तो-
किसी कली को कुचला देख,
हमारा खून नहीं खोलता.
**********
मंगलवार, 18 दिसंबर 2007
ओ मेरे अंकल! ओ मेरे नाना!! गया वो जमाना
ओ मेरे अंकल! ओ मेरे नाना!!
गया वो जमाना,गया वो जमाना
मोटा पहनना ऒर सादा खाना
गया वो जमाना,गया वो जमाना.
भजन-कीर्तन छोडो.’ईलू-ईलू’ गाओ
घर से कालेज कहकर ,पिक्चर में घुस जाओ
काहे का गाना,काहे का बजाना
ओ मेरे अंकल!ओ मेरे नाना.........
अरे! ’हलवा-पूरी’ छोडो,’फास्ट-फूड’खाओ
चार दिन की जिंदगी,खूब मॊज उडाओ
फाईफ-स्टार होटल में खाओ खाना
ओ मेरे अंकल!ओ मेरे नाना........
’राम-राम’ छोडो,’टाटा-बाय’ बोलो
जिससे हो मतलब,उसके पीछे होलो
अन्दर की बात को,कभी बाहर नहीं लाना
ओ मेरे अंकल! ओ मेरे नाना.......
गॆर हुआ वो,जो था कभी अपना
मुश्किल हो गया ’राम-नाम’जपना
हे ऊपरवाले! हो सके तो नीचे आना
ओ मेरे अंकल! ओ मेरे नाना.......
***************
रविवार, 11 नवंबर 2007
खूबसूरत कविता
मॆं/जब भी
लिखना चाहता हूं
कोई खूबसूरत कविता
अभावों की कॆंची
कतर देती हॆ
मेरे आदर्शों के पंख.
कानों में-
गूंजती हॆं-
आतंकित आवाजें
न अजान,न शंख.
मॆं/जब भी
लिखना चाहता हूं
कोई खूबसूरत कविता
भ्रष्टाचारी रावण
चुरा ले जाता हे
ईमानदारी की सीता.
मॆं/जब भी
लिखना चाहता हूं
कोई खूबसूरत कविता
बेटा-
खींच लेता हॆ
हाथ से कलम
ऒर कहता हॆ
इस कागज पर बनाओ
शेर,भालू या चीता.
मॆं/जब भी
लिखना चाहता हूं
कोई खूबसूरत कविता
चुपके से-
गोदी में आकर
बॆठ जाती हॆ बिटिया
पूछती हॆ-
पापा!आज क्या लाये हो ?
सेब,केला या फिर पपीता.
ऒर-
मॆं/जब भी
लिखना चाहता हूं
कॊई खूबसूरत कविता
पत्नी!
दिखाती हॆ-
अपनी निस्तेज आंखें
मुर्झाया चेहरा
मेरा फटा हुआ कोट
आटे का पीपा-एकदम रीता.
मॆं/जब भी
लिखना चाहता हूं
कोई खूबसूरत कविता.
***********
लिखना चाहता हूं
कोई खूबसूरत कविता
अभावों की कॆंची
कतर देती हॆ
मेरे आदर्शों के पंख.
कानों में-
गूंजती हॆं-
आतंकित आवाजें
न अजान,न शंख.
मॆं/जब भी
लिखना चाहता हूं
कोई खूबसूरत कविता
भ्रष्टाचारी रावण
चुरा ले जाता हे
ईमानदारी की सीता.
मॆं/जब भी
लिखना चाहता हूं
कोई खूबसूरत कविता
बेटा-
खींच लेता हॆ
हाथ से कलम
ऒर कहता हॆ
इस कागज पर बनाओ
शेर,भालू या चीता.
मॆं/जब भी
लिखना चाहता हूं
कोई खूबसूरत कविता
चुपके से-
गोदी में आकर
बॆठ जाती हॆ बिटिया
पूछती हॆ-
पापा!आज क्या लाये हो ?
सेब,केला या फिर पपीता.
ऒर-
मॆं/जब भी
लिखना चाहता हूं
कॊई खूबसूरत कविता
पत्नी!
दिखाती हॆ-
अपनी निस्तेज आंखें
मुर्झाया चेहरा
मेरा फटा हुआ कोट
आटे का पीपा-एकदम रीता.
मॆं/जब भी
लिखना चाहता हूं
कोई खूबसूरत कविता.
***********
शुक्रवार, 9 नवंबर 2007
दीपावली की शुभकामनाय़ें
मंगलवार, 23 अक्तूबर 2007
पुलिस,बच्चे ऒर लुच्चे-लफंगे
पहले-
पुलिस को देखकर
बच्चे घरों में दुबक जाते थे.
लुच्चे,लफंगे ऒर बदमाश
सामने आने से घबराते थे.
अब-
पुलिसवाला
बच्चों से घबराता हॆ,
लुच्चे,लफंगे,बदमाशों को देखकर
चुपचाप निकल जाता हॆ.
अरे !
मॆनें तो यहां तक सुना हॆ
कि आजकल-
हर बदमाश
पुलिसवाले को ’बडा भाई’
कहकर बुलाता हॆ.
पुलिसवाला भी-
बडे भाई का दायित्व
पूरी तरह से निभाता हॆ
य़ह बात अलग हॆ
कि कुछ कमीशन खाता हॆ.
****
पुलिस को देखकर
बच्चे घरों में दुबक जाते थे.
लुच्चे,लफंगे ऒर बदमाश
सामने आने से घबराते थे.
अब-
पुलिसवाला
बच्चों से घबराता हॆ,
लुच्चे,लफंगे,बदमाशों को देखकर
चुपचाप निकल जाता हॆ.
अरे !
मॆनें तो यहां तक सुना हॆ
कि आजकल-
हर बदमाश
पुलिसवाले को ’बडा भाई’
कहकर बुलाता हॆ.
पुलिसवाला भी-
बडे भाई का दायित्व
पूरी तरह से निभाता हॆ
य़ह बात अलग हॆ
कि कुछ कमीशन खाता हॆ.
****
रविवार, 7 अक्तूबर 2007
ना लायक हॆ.
हमने उनसे पूछा-
आपका बेटा-बेकूफ हॆ?
वो बोले-
’ना लायक’ हॆ.
आत्मनिर्भरता
==========
वो-
पहले-पडे थे
अब-
खडे हॆं
चलो-
आत्मनिर्भरता की ओर
कुछ तो बढे हॆं.
**********
आपका बेटा-बेकूफ हॆ?
वो बोले-
’ना लायक’ हॆ.
आत्मनिर्भरता
==========
वो-
पहले-पडे थे
अब-
खडे हॆं
चलो-
आत्मनिर्भरता की ओर
कुछ तो बढे हॆं.
**********
शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2007
सूरज निकल रहा हॆ
सूरज निकल रहा हॆ
ऒर तुम
सो रहे हो.
स्वपनों की दुनिया में
कहां खो रहे हो.
स्वपन सिर्फ स्वपन होते हे.
सुनहरे स्वपन
रुपहले स्वपन
मीठे-मीठे
जहरीले स्वपन.
ओ भईया! कपडा बनाने वाले
ओ भईया! अनाज उपजाने वाले
अरे ओ बाबू! दफ्तर को जाने वाले
जरा आंखें खोलो तो
ये खिडकी,दरवाजे खोलो तो
देखो बाहर-
लाल-लाल सूरज
कॆसे निकल रहा हॆ?
पहाडियों के पीछे से
वह धीरे-धीरे
हमारी ओर बढ रहा हॆ.
झरनों की कल-कल
पंछियों का कलरव
कॆसे तत्पर हॆं-
उगते हुए सूर्य का
स्वागत करने को.
उठो! तुंम भी उठो!
ऎ मेरे कवि-मित्र!
सूर्य की रोशनी
देहली पर दस्तक दे रही हॆ
ओर तुंम-
अभी तक
सो रहे हो.
न जाने -
कल्पना की
किस दुनिया में
खो रहे हो.
तुमसे तो नहीं थी
ऎसी उम्मीद
आओ! मेरे साथ आओ
यथार्थ के घरातल पर आओ
नव-जागरण के गीत गाओ.
*****************
ऒर तुम
सो रहे हो.
स्वपनों की दुनिया में
कहां खो रहे हो.
स्वपन सिर्फ स्वपन होते हे.
सुनहरे स्वपन
रुपहले स्वपन
मीठे-मीठे
जहरीले स्वपन.
ओ भईया! कपडा बनाने वाले
ओ भईया! अनाज उपजाने वाले
अरे ओ बाबू! दफ्तर को जाने वाले
जरा आंखें खोलो तो
ये खिडकी,दरवाजे खोलो तो
देखो बाहर-
लाल-लाल सूरज
कॆसे निकल रहा हॆ?
पहाडियों के पीछे से
वह धीरे-धीरे
हमारी ओर बढ रहा हॆ.
झरनों की कल-कल
पंछियों का कलरव
कॆसे तत्पर हॆं-
उगते हुए सूर्य का
स्वागत करने को.
उठो! तुंम भी उठो!
ऎ मेरे कवि-मित्र!
सूर्य की रोशनी
देहली पर दस्तक दे रही हॆ
ओर तुंम-
अभी तक
सो रहे हो.
न जाने -
कल्पना की
किस दुनिया में
खो रहे हो.
तुमसे तो नहीं थी
ऎसी उम्मीद
आओ! मेरे साथ आओ
यथार्थ के घरातल पर आओ
नव-जागरण के गीत गाओ.
*****************
रविवार, 30 सितंबर 2007
शनिवार, 22 सितंबर 2007
दॊडो ! दॊडो !! दॊडॊ !!!
दॊडो ! दॊडो !! दॊडो !!!
ऎ नालायक घोडी-घोडो
देश के लिए दॊडो
दॊडॊ ! दॊडो !! दोडो !!!
कभी गांधी के लिए दॊडो
कभी नेहरू के लिए दॊडो
अपनी टांगे तोडो
दॊडो ! दॊडो !! दॊडो !!!
चोरों के लिए दॊडो
रिश्वतखोरों के लिए दॊडो
आपस में सिर फोडों
दॊडो ! दॊडो !! दॊडो !!!
बिरला के लिए दॊडो
टाटा के लिए दॊडो
ऎ भूखे-नंगे निगोडो
दॊडो ! दॊडो !!दॊडो !!!
व्यभिचारी के लिए दॊडो
आत्याचारी के लिए दॊडो
बेकारी से मुंह मोडो
दॊडो ! दॊडो !! दॊडो !!!
राजा के लिए दॊडो
रानी के लिए दॊडो
जनता की बातें छोडो
दॊडो ! दॊडो !! दॊडो !!!
मुर्दों के लिए दॊडो
खुदगर्जॊं के लिए दॊडो
शहीदों से नाता तोडो
दॊडो ! दॊडो !! दॊडो !!!
दॊड हर सवाल का हल
गरीबी पुर्वजन्मों का फल
अपनी-अपनी किस्मत फोडो
दॊडो! दॊडो !! दॊडो !!!
हॆ शरीर में जब तक रक्त
ठहर न जाये जब तक वकत
ऎ ठोकर खाये पथ के रोडो
दॊडो ! दोडो !! दोडो !!!
******
ऎ नालायक घोडी-घोडो
देश के लिए दॊडो
दॊडॊ ! दॊडो !! दोडो !!!
कभी गांधी के लिए दॊडो
कभी नेहरू के लिए दॊडो
अपनी टांगे तोडो
दॊडो ! दॊडो !! दॊडो !!!
चोरों के लिए दॊडो
रिश्वतखोरों के लिए दॊडो
आपस में सिर फोडों
दॊडो ! दॊडो !! दॊडो !!!
बिरला के लिए दॊडो
टाटा के लिए दॊडो
ऎ भूखे-नंगे निगोडो
दॊडो ! दॊडो !!दॊडो !!!
व्यभिचारी के लिए दॊडो
आत्याचारी के लिए दॊडो
बेकारी से मुंह मोडो
दॊडो ! दॊडो !! दॊडो !!!
राजा के लिए दॊडो
रानी के लिए दॊडो
जनता की बातें छोडो
दॊडो ! दॊडो !! दॊडो !!!
मुर्दों के लिए दॊडो
खुदगर्जॊं के लिए दॊडो
शहीदों से नाता तोडो
दॊडो ! दॊडो !! दॊडो !!!
दॊड हर सवाल का हल
गरीबी पुर्वजन्मों का फल
अपनी-अपनी किस्मत फोडो
दॊडो! दॊडो !! दॊडो !!!
हॆ शरीर में जब तक रक्त
ठहर न जाये जब तक वकत
ऎ ठोकर खाये पथ के रोडो
दॊडो ! दोडो !! दोडो !!!
******
सोमवार, 17 सितंबर 2007
गुरुवार, 13 सितंबर 2007
अंग्रेज चले गये ?
’अंग्रेज चले गये’
’अब हम आजाद हॆं’
-दादाजी ने कहा
-पिता ने भी कहा
- मां ने समझाया
- भाई ने फटकारा
लेकिन वह-
चुप रहा।
दादाजी ने-
घर पर/ दिन-भर
अंग्रेजी का अखबार पढा।
पिता ने-
दफ्तर में/चपरासी को
अंग्रेजी में फटकारा।
मां ने-
स्कूल में/भारत का इतिहास
अंग्रेजी में पढाया।
भाई ने-
खादी-भंडार के
उदधाटन समारोह में
विलायती सूट पहनकर
खादी का महत्व समझाया।
ऒर-
उसने कहा-
’थूं’
सब बकवास हॆ।
**************
’अब हम आजाद हॆं’
-दादाजी ने कहा
-पिता ने भी कहा
- मां ने समझाया
- भाई ने फटकारा
लेकिन वह-
चुप रहा।
दादाजी ने-
घर पर/ दिन-भर
अंग्रेजी का अखबार पढा।
पिता ने-
दफ्तर में/चपरासी को
अंग्रेजी में फटकारा।
मां ने-
स्कूल में/भारत का इतिहास
अंग्रेजी में पढाया।
भाई ने-
खादी-भंडार के
उदधाटन समारोह में
विलायती सूट पहनकर
खादी का महत्व समझाया।
ऒर-
उसने कहा-
’थूं’
सब बकवास हॆ।
**************
बुधवार, 12 सितंबर 2007
हिन्दी पखवाडा
साहब ने-
चपरासी को
हिन्दी में फटकारा
’हिन्दी-स्टॆनों’ को
पुचकारा
ऒर-कलर्क को
अंग्रेजी टिप्पणी के लिए
लताडा.
क्या करें ?
मजबूरी हॆ-
वो आजकल मना रहे हॆं
’हिन्दी-पखवाडा’.
*********
चपरासी को
हिन्दी में फटकारा
’हिन्दी-स्टॆनों’ को
पुचकारा
ऒर-कलर्क को
अंग्रेजी टिप्पणी के लिए
लताडा.
क्या करें ?
मजबूरी हॆ-
वो आजकल मना रहे हॆं
’हिन्दी-पखवाडा’.
*********
रविवार, 9 सितंबर 2007
शनिवार, 8 सितंबर 2007
शुक्रवार, 7 सितंबर 2007
चुप्पी
मंगलवार, 4 सितंबर 2007
वेतन आयोग
सरकारी दफ्तर के
अफसर ऒर बाबू
जिनपर खुद सरकार का
नहीं हॆ काबू.
आजकल-
फूले नहीं समा रहे हॆं
वेतन-आयोग की राह में
पलकें बिछा रहे हॆं.
साहब का-
बुझा-बुझा चेहरा
खिला-खिला नजर आता हॆ
अधेड हॆड-क्लर्क भी
प्रेम-गीत गाता हे.
फाईलों के ढेर को देखकर
आसमान सिर पर उठाने वाला बाबू
’राम’को ’रामलाल जी’ कहकर बुलाता हॆ.
साहब की स्टॆनॊ
मन ही मन मुस्कराती हॆ
दिन में कई-कई बार
बढने वाले वेतन का
हिसाब लगाती हॆ.
सदा ऊंघने वाला चपरासी
सावधान नजर आता हॆ
’मेरे सपनों की रानी कब आयेगी तू’
यही गीत गाता हॆ.
************
अफसर ऒर बाबू
जिनपर खुद सरकार का
नहीं हॆ काबू.
आजकल-
फूले नहीं समा रहे हॆं
वेतन-आयोग की राह में
पलकें बिछा रहे हॆं.
साहब का-
बुझा-बुझा चेहरा
खिला-खिला नजर आता हॆ
अधेड हॆड-क्लर्क भी
प्रेम-गीत गाता हे.
फाईलों के ढेर को देखकर
आसमान सिर पर उठाने वाला बाबू
’राम’को ’रामलाल जी’ कहकर बुलाता हॆ.
साहब की स्टॆनॊ
मन ही मन मुस्कराती हॆ
दिन में कई-कई बार
बढने वाले वेतन का
हिसाब लगाती हॆ.
सदा ऊंघने वाला चपरासी
सावधान नजर आता हॆ
’मेरे सपनों की रानी कब आयेगी तू’
यही गीत गाता हॆ.
************
शनिवार, 1 सितंबर 2007
गजल - मेरे शहर को यह क्या हुआ हॆ?
गजल
====
मेरे शहर को ये क्या हुआ हॆ
जिधर भी देखो धुंआ ही धुंआ हॆ।
मुद्दत से हॆ ख्वाईश कि गुलाब देखेंगे
मगर चमन तो मेरा सूखा हुआ हॆ.
बचपन से सीधा यहां आता हॆ बुढापा
जवानी का आना महज सपना हुआ हॆ।
सुना हॆ यहां भी रहती थी चिडिया
अब हर शाख पर उल्लू बॆठा हुआ हॆ।
किसको कहें,कॆसे कहें,मन की बात
हवा ऎसी चली हॆ कि आदमी बहरा हुआ हॆ।
खोलता नही कोई बंद खिडकियां यहां
दूरदर्शन का ऎसा सख्त पहरा हुआ हॆ।
तुम मेरी आखों में देखो तो सही
एक अरसे से तूफान ठहरा हुआ हॆ।
************
गुरुवार, 30 अगस्त 2007
म्हारो छोट्टा छोरा ( मेरा छोटा लडका )
शर्मा जी !
म्हारो छोट्टा छोरा
आजकल-
घणॆ ऎब करा हॆ
छोट्टी छोट्टी बाता पॆ
बुरी तॆय्या लडा हॆ।
गली के
हर बदमाश नॆ शरीफ
ऒर शरीफ नॆ बदमाश
बतावॆ हॆ
समाजवाद ऒर गरीबी की
नई-नई परिभाषा
बातावॆ हॆ।
जिब जी चाहवॆ
भाषण झडवा ल्यो
पाठशाला मॆं
गुरूजी नॆ पिटवा ल्य़ॊ
या फिर-
बसा के शीशे तुडवा ल्यो।
पिछली साल-
आठवीं में
चॊथी बार फेल हो ग्यो
मन्नॆ डाटा तॆ
घर सॆ रेल हो ग्यो।
अब तॆ-मन्नॆ
इसे की चिन्ता हॆ
ना जानूं-
कब ताई
अय्यों मेरा नाम रोशन करेगा
के बॆरा ?
भविष्य में के बनॆगा?
मॆं बोल्या-
रॆ गोबरगणेश !
तू तॆ खां मॆं खा घबरावॆ सॆ
उसकी हर योग्यता नॆ
अयोग्यता बतावॆ सॆ।
रॆ मत घबरा
उसका भविष्य तो
आपो बन जावॆगा
कल नॆ देखियो-
यो ही-
मिनिस्टर बन जावॆगा।
************
म्हारो छोट्टा छोरा
आजकल-
घणॆ ऎब करा हॆ
छोट्टी छोट्टी बाता पॆ
बुरी तॆय्या लडा हॆ।
गली के
हर बदमाश नॆ शरीफ
ऒर शरीफ नॆ बदमाश
बतावॆ हॆ
समाजवाद ऒर गरीबी की
नई-नई परिभाषा
बातावॆ हॆ।
जिब जी चाहवॆ
भाषण झडवा ल्यो
पाठशाला मॆं
गुरूजी नॆ पिटवा ल्य़ॊ
या फिर-
बसा के शीशे तुडवा ल्यो।
पिछली साल-
आठवीं में
चॊथी बार फेल हो ग्यो
मन्नॆ डाटा तॆ
घर सॆ रेल हो ग्यो।
अब तॆ-मन्नॆ
इसे की चिन्ता हॆ
ना जानूं-
कब ताई
अय्यों मेरा नाम रोशन करेगा
के बॆरा ?
भविष्य में के बनॆगा?
मॆं बोल्या-
रॆ गोबरगणेश !
तू तॆ खां मॆं खा घबरावॆ सॆ
उसकी हर योग्यता नॆ
अयोग्यता बतावॆ सॆ।
रॆ मत घबरा
उसका भविष्य तो
आपो बन जावॆगा
कल नॆ देखियो-
यो ही-
मिनिस्टर बन जावॆगा।
************
गुरुवार, 23 अगस्त 2007
जांच-आयोग ऒर नेता
हमने-
एक खद्दर-धारी नेता से पूछा
बन्धु !
यह जांच आयोग क्या बला हॆ
वो मुस्कराकर बोले-
उठे हुए मामले को
दबाने की आधुनिक कला हॆ।
**********
एक खद्दर-धारी नेता से पूछा
बन्धु !
यह जांच आयोग क्या बला हॆ
वो मुस्कराकर बोले-
उठे हुए मामले को
दबाने की आधुनिक कला हॆ।
**********
मंगलवार, 21 अगस्त 2007
रविवार, 19 अगस्त 2007
दोस्ती
मेरे पास
नहीं हॆं-
जिन्दगी की वो रंगीन तस्वीरें
जिनसे तुम्हें रिझा सकूं।
मेरे पास
नहीं हॆं वो मखमली हाथ
जिनसे तुम्हें सहला सकूं।
मेरे पास
नहीं हॆं वो लोरियां
जिनसे तुम्हें सुला सकूं।
मेरे पास हॆ
कूडे के ढेर से
रोटी का टुकडा ढूंढते
एक अधनंगे बच्चे की
काली ऒर सफेद तस्वीर
देखोगे ?
मेरे पास हॆं
एक मजदूर के
खुरदुरे हाथ
जो वक्त आने पर
हथॊडा बन सकते हॆं
अजमाओगे ?
मेरे पास हॆ
सत्य की कर्कश बोली
जॆसे ’कुनॆन’ की कडवी गोली
खाओगे ?
यदि नहीं
तो माफ करना
मॆं
आपकी दोस्ती के काबिल नहीं।
*******
नहीं हॆं-
जिन्दगी की वो रंगीन तस्वीरें
जिनसे तुम्हें रिझा सकूं।
मेरे पास
नहीं हॆं वो मखमली हाथ
जिनसे तुम्हें सहला सकूं।
मेरे पास
नहीं हॆं वो लोरियां
जिनसे तुम्हें सुला सकूं।
मेरे पास हॆ
कूडे के ढेर से
रोटी का टुकडा ढूंढते
एक अधनंगे बच्चे की
काली ऒर सफेद तस्वीर
देखोगे ?
मेरे पास हॆं
एक मजदूर के
खुरदुरे हाथ
जो वक्त आने पर
हथॊडा बन सकते हॆं
अजमाओगे ?
मेरे पास हॆ
सत्य की कर्कश बोली
जॆसे ’कुनॆन’ की कडवी गोली
खाओगे ?
यदि नहीं
तो माफ करना
मॆं
आपकी दोस्ती के काबिल नहीं।
*******
गुरुवार, 16 अगस्त 2007
कॆसे-कॆसे हादसे होने लगे हॆ आजकल ?
गजल
====
कॆसे-कॆसे हादसे होने लगे हॆ आजकल
मल्लाह ही नाव को डुबोने लगे हॆं आजकल.
जहरीली हवा हुई तो दरखतों को दोष क्य़ों
माली खुद विष-बेल बोने लगे हॆं आजकल।
घर के पहरेदारों की मुस्तॆदी तो देखिए
चॊखट पे सिर रखकर सोने लगे हॆं आजकल।
बंद मुट्ठियों के हॊसले जानते हॆं वो
उगलियों पर हमले होने लगे हॆं आजकल।
कल तक थे जो झुके-झुके से
तनकर खडे होने लगे हॆं आजकल।
*******
====
कॆसे-कॆसे हादसे होने लगे हॆ आजकल
मल्लाह ही नाव को डुबोने लगे हॆं आजकल.
जहरीली हवा हुई तो दरखतों को दोष क्य़ों
माली खुद विष-बेल बोने लगे हॆं आजकल।
घर के पहरेदारों की मुस्तॆदी तो देखिए
चॊखट पे सिर रखकर सोने लगे हॆं आजकल।
बंद मुट्ठियों के हॊसले जानते हॆं वो
उगलियों पर हमले होने लगे हॆं आजकल।
कल तक थे जो झुके-झुके से
तनकर खडे होने लगे हॆं आजकल।
*******
सोमवार, 13 अगस्त 2007
राजमाता ’हिन्दी’ की सवारी
होशियार ! खबरदार !!
आ रहे हॆं
राजमाता ’हिन्दी’ के शुभचिंतक
मॆडम ’अंग्रेजी’ के पहरेदार !
हर वर्ष की भांति
इस बार भी
ठीक १४ सितंबर को
राजमाता हिन्दी की सवारी
धूम-धाम से निकाली जायेगी
कुछ अंग्रेज-भक्त अफसरों की टोली
’हिन्दी-राग’ गायेगी।
दरबारियों से हॆ अनुरोध
उस दिन ’सेंडविच’ या ’हाट-डाग’
राजदरबार में लेकर न आयें।
’खीर-पकवान’ या ’रस-मलाई’ जॆसी
भारत स्वीट-डिश ही खायें।
आम जनता
खबरदार !
वॆसे तो हमने
चप्पे-चप्पे पर
बॆठा रखे हॆं-पहरेदार ।
फिर भी-
हो सकता हॆ
कोई सिरफिरा
उस दिन
अपने आप को
’हिन्दी-भक्त’ बताये
हमारे निस्वार्थ ’हिन्दी-प्रेम’ को
छल-प्रपंच या ढकोसला बताये।
कृपया-
ऎसी अनावश्यक बातों पर
अपने कान न लगायें
भूखे आयें
नंगे आयें
आखों वाले अंधे आयें
राजमाता ’हिन्दी’ का
गुणगान गायें।
***********
आ रहे हॆं
राजमाता ’हिन्दी’ के शुभचिंतक
मॆडम ’अंग्रेजी’ के पहरेदार !
हर वर्ष की भांति
इस बार भी
ठीक १४ सितंबर को
राजमाता हिन्दी की सवारी
धूम-धाम से निकाली जायेगी
कुछ अंग्रेज-भक्त अफसरों की टोली
’हिन्दी-राग’ गायेगी।
दरबारियों से हॆ अनुरोध
उस दिन ’सेंडविच’ या ’हाट-डाग’
राजदरबार में लेकर न आयें।
’खीर-पकवान’ या ’रस-मलाई’ जॆसी
भारत स्वीट-डिश ही खायें।
आम जनता
खबरदार !
वॆसे तो हमने
चप्पे-चप्पे पर
बॆठा रखे हॆं-पहरेदार ।
फिर भी-
हो सकता हॆ
कोई सिरफिरा
उस दिन
अपने आप को
’हिन्दी-भक्त’ बताये
हमारे निस्वार्थ ’हिन्दी-प्रेम’ को
छल-प्रपंच या ढकोसला बताये।
कृपया-
ऎसी अनावश्यक बातों पर
अपने कान न लगायें
भूखे आयें
नंगे आयें
आखों वाले अंधे आयें
राजमाता ’हिन्दी’ का
गुणगान गायें।
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शुक्रवार, 3 अगस्त 2007
तब ऒर अब
तब तुम थे
लगता-
मॆं हूं
तुम हो
ऒर कुछ भी नहीं।
गवाह हॆ-
गांव के बहार खडा
वह बरगद का पेड
हमारी मलाकातों का
जिसके नीचे बॆठ
तपती दोपहरी में
भविष्य के सुनहरे स्वपन बुनते थे।
तुम!
चले गये
दुःख हुआ।
लेकिन-
तुम्हारे जाने के बाद
आ गया कोई ऒर
अब-
लगता हॆ-
मॆं हूं
वो हॆ
ऒर कुछ भी नहीं।
नाटक का सिर्फ
एक पात्र बदला हॆ
बाकि-
वही-मॆं
गांव, बरगद का पेड
तपती दोपहरी
ऒर-
सुनहरे सपने।
***********
लगता-
मॆं हूं
तुम हो
ऒर कुछ भी नहीं।
गवाह हॆ-
गांव के बहार खडा
वह बरगद का पेड
हमारी मलाकातों का
जिसके नीचे बॆठ
तपती दोपहरी में
भविष्य के सुनहरे स्वपन बुनते थे।
तुम!
चले गये
दुःख हुआ।
लेकिन-
तुम्हारे जाने के बाद
आ गया कोई ऒर
अब-
लगता हॆ-
मॆं हूं
वो हॆ
ऒर कुछ भी नहीं।
नाटक का सिर्फ
एक पात्र बदला हॆ
बाकि-
वही-मॆं
गांव, बरगद का पेड
तपती दोपहरी
ऒर-
सुनहरे सपने।
***********
मंगलवार, 10 जुलाई 2007
गजल
====
चार अक्षर क्या पढ गया बेटा
कुछ ज्यादा ही अकड गया बेटा।
न राम-रहीम, न दुआ-सलाम
’ऒ’ ’टा-टा’ से लिपट गया बेटा
कुछ ज्यादा ही.......बेटा।
कहां गई वो मर्दानी मूछ-दाडी
नपुसंकों की जमात में मिल गया बेटा
कुछ ज्यादा ही........बेटा।
बाहर से हीरो, अन्दर से जीरो
यह किस चक्कर में पड गया बेटा
कुछ ज्यादा ही........बेटा।
न रहे अपने ऒर न ही अपनापन
यह कॆसा दॊर चल गया बेटा ?
कुछ ज्यादा ही.........बेटा।
***************
====
चार अक्षर क्या पढ गया बेटा
कुछ ज्यादा ही अकड गया बेटा।
न राम-रहीम, न दुआ-सलाम
’ऒ’ ’टा-टा’ से लिपट गया बेटा
कुछ ज्यादा ही.......बेटा।
कहां गई वो मर्दानी मूछ-दाडी
नपुसंकों की जमात में मिल गया बेटा
कुछ ज्यादा ही........बेटा।
बाहर से हीरो, अन्दर से जीरो
यह किस चक्कर में पड गया बेटा
कुछ ज्यादा ही........बेटा।
न रहे अपने ऒर न ही अपनापन
यह कॆसा दॊर चल गया बेटा ?
कुछ ज्यादा ही.........बेटा।
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रविवार, 8 जुलाई 2007
एक साहित्यकार का रोजनामचा
सुबह उठा
देर तक अखबार चाटा.
ऒर भ्रष्टाचार के लिए
वर्तमान सरकार को डांटा।
नाश्ता किया
डाक देखी
’रचना स्वीकृति’ का
कोई समाचार नहीं मिला
मन ही मन
खूब कहा-सम्पादकों को बुरा-भला।
दफ्तर गया
अधिकारी से झगडा हुआ
सहकर्मियों को ’एकता का महत्व’ समझाया
लेकिन-कोई फायदा नहीं हुआ।
शाम को-
एक गोष्ठी में
गंभीर विषय पर भाषण दिया
थोडी तालियां बजीं
मन प्रस्न्न हुआ।
गोष्ठी खत्म हुई
घर लोट आया
थोडा खाना खाया
पत्नी ने-
घर-गृहस्थी का दुःखडा
आज भी सुनाया
मन दुःखी हुआ
कागज ऒर पॆन उठाया
देर रात तक कुछ लिखा
लिफाफे में बंद किया
ऒर-सो गया.
शुक्रवार, 6 जुलाई 2007
फर्क
फर्क
कोई खास नहीं हॆ
तुम्हारे ऒर मेरे बीच
तुम-
खांसते हो,
खखारते हो,
ऒर एक बेचॆनी सी महसूस करते हो।
मॆ-
खांसता हूं
खखारता हूं
एक बेचॆनी सी महसूस करता हूं
ऒर-
उस बेचॆनी को
उलट देता हूं
एक कागज पर
तुम अगर चाहो तो
इसे कविता कह सकते हो।
******
गुरुवार, 5 जुलाई 2007
मंगलवार, 3 जुलाई 2007
तॊलिया,इजिचेअर ऒर वेटिंग-रूम
मॆं-
खूंटी पर टंगा
कोई तॊलिया तो नहीं
कि-
हर कोई आये
ऒर फिर चला जाये
अपने जिस्म को
मेरे जिस्म से रगडकर
छॊड जाये
अपने जिस्म के गंदे किटाणु
मेरे जिस्म पर।
*
मॆं-
घर के कॊने में पडी
कोई ईजी-चेअर तो नहीं
कि-
हर कोई आये
ऒर फिर चला जाये
अपने भारी-भरकम शरीर को
कुछ देर
मुझ पर पटकर
यह भी न देखे
कि मेरी टांगें लडखडा रही हॆ।
**
मॆं
रेलवे-स्टेशन का
वेटिंग-रुम तो नहीं
कि-हर मुसाफिर
ट्रेन से उतरकर
मुझमें कुछ देर ठहरे
ऒर-फिर
चला जाये
नयी ट्रेन आने पर।
***********
खूंटी पर टंगा
कोई तॊलिया तो नहीं
कि-
हर कोई आये
ऒर फिर चला जाये
अपने जिस्म को
मेरे जिस्म से रगडकर
छॊड जाये
अपने जिस्म के गंदे किटाणु
मेरे जिस्म पर।
*
मॆं-
घर के कॊने में पडी
कोई ईजी-चेअर तो नहीं
कि-
हर कोई आये
ऒर फिर चला जाये
अपने भारी-भरकम शरीर को
कुछ देर
मुझ पर पटकर
यह भी न देखे
कि मेरी टांगें लडखडा रही हॆ।
**
मॆं
रेलवे-स्टेशन का
वेटिंग-रुम तो नहीं
कि-हर मुसाफिर
ट्रेन से उतरकर
मुझमें कुछ देर ठहरे
ऒर-फिर
चला जाये
नयी ट्रेन आने पर।
***********
रविवार, 1 जुलाई 2007
sambanध
संबंध
====
मुश्किल होता हॆ-
आंधियों के बीच
दीपक की लॊ को बचाये रखना।
या फिर-
काजल की कोठरी से
गुजरते हुए-
अपने चेहरे को
साफ-सफेद बनाये रखना।
’लॊ’ को बचाने की कॊशिश में
हाथ झुलस जाते हॆं
लेकिन-
हाथ झुलसने की पीडा
’दीपक’ या ’लॊ’
कहां समझ पाते हॆ।
चेहरे की सफेदी
बनाये रखने की कॊशिश में
पूरा अन्तर्मन छिल जाता हॆ
कोठरी का काजल
अन्तर्मन की पीडा
कहां समझ पाता हॆ।
सच !
बहुत मुश्किल होता हे-
किसी को-
अपनी आंखों में बसाये रखना
या फिर-
संबंधों को बनाये रखना।
*******************
====
मुश्किल होता हॆ-
आंधियों के बीच
दीपक की लॊ को बचाये रखना।
या फिर-
काजल की कोठरी से
गुजरते हुए-
अपने चेहरे को
साफ-सफेद बनाये रखना।
’लॊ’ को बचाने की कॊशिश में
हाथ झुलस जाते हॆं
लेकिन-
हाथ झुलसने की पीडा
’दीपक’ या ’लॊ’
कहां समझ पाते हॆ।
चेहरे की सफेदी
बनाये रखने की कॊशिश में
पूरा अन्तर्मन छिल जाता हॆ
कोठरी का काजल
अन्तर्मन की पीडा
कहां समझ पाता हॆ।
सच !
बहुत मुश्किल होता हे-
किसी को-
अपनी आंखों में बसाये रखना
या फिर-
संबंधों को बनाये रखना।
*******************
शुक्रवार, 29 जून 2007
मजबूत siढी
मजबूत सीढी
========
मॆं भी
अपनी इन बंद मुट्ठियों में
भर सकता हूं
सफलता का सम्पूर्ण इतिहास।
बन सकता हूं
चमकता सितारा
या फिर-
आकाश।
कोई मजबूत सी सीढी
मिल जाये
काश!
******
========
मॆं भी
अपनी इन बंद मुट्ठियों में
भर सकता हूं
सफलता का सम्पूर्ण इतिहास।
बन सकता हूं
चमकता सितारा
या फिर-
आकाश।
कोई मजबूत सी सीढी
मिल जाये
काश!
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मंगलवार, 26 जून 2007
तीन किस्म के जानवर
इस जंगल में
तीन किस्म के जानवर हॆं
पहले-
रॆंगते हॆं
दूसरे-
चलते हॆं
तीसरे-
दॊडते हॆं।
रॆंगने वाले-
चलना चाहते हॆं
चलने वाले-
दॊडना चाहते हॆं
लेकिन-
दॊडने वाले !
स्वयं नहीं जानते
कि वे
क्या चाहते हॆं?
**********
तीन किस्म के जानवर हॆं
पहले-
रॆंगते हॆं
दूसरे-
चलते हॆं
तीसरे-
दॊडते हॆं।
रॆंगने वाले-
चलना चाहते हॆं
चलने वाले-
दॊडना चाहते हॆं
लेकिन-
दॊडने वाले !
स्वयं नहीं जानते
कि वे
क्या चाहते हॆं?
**********
रविवार, 24 जून 2007
धीरे चलो
धीरे चलो
======
धीरे चलो
जरुर चलो
लेकिन इतना नहीं
कि-
जिन्दगी की हर दॊड में
सबसे पीछे रह जाऒ.
*********
======
धीरे चलो
जरुर चलो
लेकिन इतना नहीं
कि-
जिन्दगी की हर दॊड में
सबसे पीछे रह जाऒ.
*********
बुधवार, 6 जून 2007
सच्चा neता
सच्चा राष्ट्र-नेता
==========
अध्यापक ने-
छात्र से पूछा-
बताऒ बेटा
किसे कहते हॆं?
सच्चा राष्ट्र-नेता.
छात्र बोला-
गुरू- जो छोटी बात पर
लम्बा भाषण देता हॆ,
बहुत कुछ लेता हॆ
पर कुछ नहीं देता हॆ
समझो-
वही सच्चा राष्ट्र नेता हॆ.
==========
अध्यापक ने-
छात्र से पूछा-
बताऒ बेटा
किसे कहते हॆं?
सच्चा राष्ट्र-नेता.
छात्र बोला-
गुरू- जो छोटी बात पर
लम्बा भाषण देता हॆ,
बहुत कुछ लेता हॆ
पर कुछ नहीं देता हॆ
समझो-
वही सच्चा राष्ट्र नेता हॆ.
सोमवार, 4 जून 2007
हे मेरे परम-पूज्य anधविश्वासी पिता !
हे मेरे परम-पूज्य अंधविश्वासी पिता !
कम से कम
अपने बुढापे का
मेरी जवानी का
कुछ तो ख्याल किया होता
सुरसा-मुख-सम
बढती जा रही
इस मंहगाई के युग में,
ज्यादा नहीं,
सिर्फ एक
अक्ल का काम किया होता.
बजाय-
इस क्रिकेट टीम के
चार सदस्यों का
सुखमय हमारा संसार होता.
खुद खा सकता
हमें खिला सकता
खुद डूबा
मुझे भी ले डूबा.
काश !
हमारी भूमिकाएं बदल जाती
जो हुआ
शायद वो सब न होता.
हे मेरे परम-पूज्य अंधविश्वासी पिता !
***********
कम से कम
अपने बुढापे का
मेरी जवानी का
कुछ तो ख्याल किया होता
सुरसा-मुख-सम
बढती जा रही
इस मंहगाई के युग में,
ज्यादा नहीं,
सिर्फ एक
अक्ल का काम किया होता.
बजाय-
इस क्रिकेट टीम के
चार सदस्यों का
सुखमय हमारा संसार होता.
खुद खा सकता
हमें खिला सकता
खुद डूबा
मुझे भी ले डूबा.
काश !
हमारी भूमिकाएं बदल जाती
जो हुआ
शायद वो सब न होता.
हे मेरे परम-पूज्य अंधविश्वासी पिता !
***********
गुरुवार, 31 मई 2007
भिखारी
चुनाव के मॊसम में
एक भिखारी
मेरे दरवाजे पर आता हॆ
भविष्य के-
सुनहरे स्वप्न दिखाकर
लूट ले जाता हॆ.
*********
एक भिखारी
मेरे दरवाजे पर आता हॆ
भविष्य के-
सुनहरे स्वप्न दिखाकर
लूट ले जाता हॆ.
*********
चुनावी-haथकंडे
चुनावी-हथकंडे
=========
छोटी बातें
भाषण लम्बे.
झण्डे
डण्डे
ऒर मुसटण्डे.
कुछ ऒर नहीं
चुनावी-हथकंडे.
********
=========
छोटी बातें
भाषण लम्बे.
झण्डे
डण्डे
ऒर मुसटण्डे.
कुछ ऒर नहीं
चुनावी-हथकंडे.
********
बुधवार, 30 मई 2007
मॆ ऒर तुम
मॆं/नहीं चाहता
कि-तुम
ऒपचारिकता का लिबास/पहनकर
मेरे नजदीक आओ.
अपने होंठों पर
झूठ की लिपस्टिक/सजाकर
सच को झुठलाओ.
या फिर-
देह-यष्टि/चमकाने के लिए
सुगंधित साबुन
या फिर इत्र लगाओ.
मॆं/चाहता हूं
कि-तुम
अपनी असली झिलमिलाहट के साथ
मुझसे लिपट जाओ.
मेरे/सुसुप्त भावों को
कामदेव-सा जगाओ
ओर फिर-
दो डालें
हवा में लहराने लगें
होती हुई एकाकार.
********
कि-तुम
ऒपचारिकता का लिबास/पहनकर
मेरे नजदीक आओ.
अपने होंठों पर
झूठ की लिपस्टिक/सजाकर
सच को झुठलाओ.
या फिर-
देह-यष्टि/चमकाने के लिए
सुगंधित साबुन
या फिर इत्र लगाओ.
मॆं/चाहता हूं
कि-तुम
अपनी असली झिलमिलाहट के साथ
मुझसे लिपट जाओ.
मेरे/सुसुप्त भावों को
कामदेव-सा जगाओ
ओर फिर-
दो डालें
हवा में लहराने लगें
होती हुई एकाकार.
********
सोमवार, 28 मई 2007
चुप्पी
उन्हें-
कहने दीजिये
हमें-
चुप्प रहने दीजिये।
उनका-
कुछ भी कहना व्यर्थ हॆ
जब तक आदमी सतर्क हॆ
ऒर-
हमारी चुप्पी का भी
एक विशेष अर्थ हॆ।
*****
कहने दीजिये
हमें-
चुप्प रहने दीजिये।
उनका-
कुछ भी कहना व्यर्थ हॆ
जब तक आदमी सतर्क हॆ
ऒर-
हमारी चुप्पी का भी
एक विशेष अर्थ हॆ।
*****
रविवार, 27 मई 2007
जांच-आयोग
हमने-
एक खद्दर-घारी नेता से पूछा
ये जांच-आयोग क्या बला हॆ ?
वो मुस्कराकर बोले-
उठे हुए मामले को
दबाने की आधुनिक कला हॆ।
********
एक खद्दर-घारी नेता से पूछा
ये जांच-आयोग क्या बला हॆ ?
वो मुस्कराकर बोले-
उठे हुए मामले को
दबाने की आधुनिक कला हॆ।
********
शुक्रवार, 25 मई 2007
ख्वाब
ख्वाब
तुम भी देखते हो
हम भी देखते हॆ।
तुम्हारे-
ख्वाबों में हॆ-
दूघ पीता/अलसेशियन
पालतू कुत्ता,
दिन में-
दस बार
साडियां बदलती
देशी जिस्म में
विदेशी बीबी
ऒर-
हमारी कब्र पर
एक के बाद एक
खडी होती
ऊंची अट्टालिकाएं।
हमारे ख्वाबों में हॆं-
मां के-
सूखे स्तन चिचोडता
बच्चा।
फटी धोती में
पूरे जिस्म को
ढापने की कोशिश करती
-एक युवती।
ऒर-
घर बनाते-
बेघर
खुले आसमान के नीचे
रहने को मजबूर
कुछ मजदूर।
*****
तुम भी देखते हो
हम भी देखते हॆ।
तुम्हारे-
ख्वाबों में हॆ-
दूघ पीता/अलसेशियन
पालतू कुत्ता,
दिन में-
दस बार
साडियां बदलती
देशी जिस्म में
विदेशी बीबी
ऒर-
हमारी कब्र पर
एक के बाद एक
खडी होती
ऊंची अट्टालिकाएं।
हमारे ख्वाबों में हॆं-
मां के-
सूखे स्तन चिचोडता
बच्चा।
फटी धोती में
पूरे जिस्म को
ढापने की कोशिश करती
-एक युवती।
ऒर-
घर बनाते-
बेघर
खुले आसमान के नीचे
रहने को मजबूर
कुछ मजदूर।
*****
गुरुवार, 24 मई 2007
नकाब
मॆंने-
सिलवाकर रखे हॆं
कई नकाब।
जॆसे भी
माहॊल में जाता हूं
वॆसा ही-
नकाबपोश हो जाता हूं।
तब लोग-मुझे नहीं
मेरे नकाब को जानते हॆं।
ऒर-
मेरी हर बात को
पत्थर की लकीर मानते हॆ।
*******
सिलवाकर रखे हॆं
कई नकाब।
जॆसे भी
माहॊल में जाता हूं
वॆसा ही-
नकाबपोश हो जाता हूं।
तब लोग-मुझे नहीं
मेरे नकाब को जानते हॆं।
ऒर-
मेरी हर बात को
पत्थर की लकीर मानते हॆ।
*******
dhabhasष
विरोधाभास
=======
वो हमें
निर्धन ऒर गरीब
बताते हॆं।
ऊपर उठाने के लिए
सुन्दर,सुकोमल-स्वप्न
दिखाते हॆं।
लेकिन अफसोस-
हमारे सामने ही
झोली फॆलाते हॆं।
******
=======
वो हमें
निर्धन ऒर गरीब
बताते हॆं।
ऊपर उठाने के लिए
सुन्दर,सुकोमल-स्वप्न
दिखाते हॆं।
लेकिन अफसोस-
हमारे सामने ही
झोली फॆलाते हॆं।
******
’न’ ऒर ’अ’
’तुम उसे जानते हो ?’
’नहीं.’
’पहचानते हो ?’
’नहीं.’
’कहीं देखा ?’
’नहीं.’
जानते हो...नहीं !
पहचानते हो...नहीं !!
कहीं देखा...नहीं !!!
नहीं!नहीं!!नहीं!!!
फिर भी...
मूर्ख !...अंधविश्वासी !!...हठधर्मी !!!
********
’नहीं.’
’पहचानते हो ?’
’नहीं.’
’कहीं देखा ?’
’नहीं.’
जानते हो...नहीं !
पहचानते हो...नहीं !!
कहीं देखा...नहीं !!!
नहीं!नहीं!!नहीं!!!
फिर भी...
मूर्ख !...अंधविश्वासी !!...हठधर्मी !!!
********
शुक्रवार, 27 अप्रैल 2007
thaboध
अर्थबोध
-------
कुछ वर्ष पहले-
सिफारिश,रिश्वत
ऒर
बेईमानी जॆसे
आसान शब्दों के अर्थ
पकडने के लिए
मॆं
इनके पीछे दॊडता था.
लेकिन-
अब ये शब्द
अपने अर्थ समझाने के लिए
मेरे पीछे दॊडते हॆ.
-------
कुछ वर्ष पहले-
सिफारिश,रिश्वत
ऒर
बेईमानी जॆसे
आसान शब्दों के अर्थ
पकडने के लिए
मॆं
इनके पीछे दॊडता था.
लेकिन-
अब ये शब्द
अपने अर्थ समझाने के लिए
मेरे पीछे दॊडते हॆ.
अभिमन्यु का आत्मद्वन्द्व
आज/फिर
कॊरवों ने
मेरे चारों ओर
चक्रव्यूह रचा हॆ।
मॆं/नहीं चाहता
चक्रव्यूह से निकल भागना
चाहता हूं
इसे तोडना।
लेकिन-
नहीं तोड पा रहा हूं।
काश!
तुम
कुछ देर ऒर
न सोयी होती
मां।
***
कॊरवों ने
मेरे चारों ओर
चक्रव्यूह रचा हॆ।
मॆं/नहीं चाहता
चक्रव्यूह से निकल भागना
चाहता हूं
इसे तोडना।
लेकिन-
नहीं तोड पा रहा हूं।
काश!
तुम
कुछ देर ऒर
न सोयी होती
मां।
***
बुधवार, 25 अप्रैल 2007
गुब्बारा
क्या-मॆं
तुम्हारे लिए
सिर्फ एक गुब्बारा हूँ
जिसमें जब जी चाहे
हवा भरो
कुछ देर खेलॊ
ऒर फिर फोड दो।
काश !
तुम भी गुब्बारा होते
कोई हवा भरता
कुछ देर खेलता
ऒर फिर-फोड देता
तब तुम
समझ पाते
एक गुब्बारे के फूटने का दर्द
क्या होता हॆ?
किसी बडे या बच्चे के द्वारा
गुब्बारा फोडे जाने में
बडा भारी अन्तर होता हॆ।
बच्चा-
स्वयं गुब्बारा नहीं फोडता
बल्कि गुब्बारा उससे फूट जाता हॆ।
वह गुब्बारा फूटने पर
तुम्हारी तरह कहकहे नहीं लगाता
ब्लकि-
रोता,गिडगिडाता या फिर
आँसू बहाता हॆ।
ऒर फिर-
तुमनें तो
बाँध लिया था
मुझे एक घागे से
ताकि तुम्हारी मर्जी से उड सकूँ।
तुम कभी धागे को
ढीला छोड देते थे
तो कभी-अपनी ऒर खींच लेते थे।
आह!
कितना खुश हुआ था-मॆं
जब तुमने-
धागे को स्वयं से जुदा करते हुए
कहा था-
कि-अब तुम आज़ाद हॊ।
लेकिन-
हाय री विडम्बना !
ये कॆसी आज़ादी ?
कुछ देर बाद ही
तुमनें जेब़ से पिस्तॊल निकाली
ऒर लगा दिया निशाना
मेरा अस्तित्व !
खण्ड-खण्ड हो
असीम आकाश से
कठोर धरातल पर आ पडा।
काश!
मॆं गुब्बारा न होता
ऒर अगर होता
तो मुझमें
गॆस नहीं-
हवा भरी होती-हवा
वही हवा
जो नहीं उडने देती
गुब्बारे को
खुले आकाश में।
************
तुम्हारे लिए
सिर्फ एक गुब्बारा हूँ
जिसमें जब जी चाहे
हवा भरो
कुछ देर खेलॊ
ऒर फिर फोड दो।
काश !
तुम भी गुब्बारा होते
कोई हवा भरता
कुछ देर खेलता
ऒर फिर-फोड देता
तब तुम
समझ पाते
एक गुब्बारे के फूटने का दर्द
क्या होता हॆ?
किसी बडे या बच्चे के द्वारा
गुब्बारा फोडे जाने में
बडा भारी अन्तर होता हॆ।
बच्चा-
स्वयं गुब्बारा नहीं फोडता
बल्कि गुब्बारा उससे फूट जाता हॆ।
वह गुब्बारा फूटने पर
तुम्हारी तरह कहकहे नहीं लगाता
ब्लकि-
रोता,गिडगिडाता या फिर
आँसू बहाता हॆ।
ऒर फिर-
तुमनें तो
बाँध लिया था
मुझे एक घागे से
ताकि तुम्हारी मर्जी से उड सकूँ।
तुम कभी धागे को
ढीला छोड देते थे
तो कभी-अपनी ऒर खींच लेते थे।
आह!
कितना खुश हुआ था-मॆं
जब तुमने-
धागे को स्वयं से जुदा करते हुए
कहा था-
कि-अब तुम आज़ाद हॊ।
लेकिन-
हाय री विडम्बना !
ये कॆसी आज़ादी ?
कुछ देर बाद ही
तुमनें जेब़ से पिस्तॊल निकाली
ऒर लगा दिया निशाना
मेरा अस्तित्व !
खण्ड-खण्ड हो
असीम आकाश से
कठोर धरातल पर आ पडा।
काश!
मॆं गुब्बारा न होता
ऒर अगर होता
तो मुझमें
गॆस नहीं-
हवा भरी होती-हवा
वही हवा
जो नहीं उडने देती
गुब्बारे को
खुले आकाश में।
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सोमवार, 23 अप्रैल 2007
कूप-मंडूक
तब ऒर अब
भूत ऒर वर्तमान
तब-मॆं भूत था
लेकिन-अब वर्तमान।
मेरा भूत-कूप-मंडूक
सोचता था-सर्वग्य़ानी हूं।
आकाश में....
एक...दो...दस...बस
इतने ही तारे हॆ।
दुनिया इस कुएं से बडी नही
जिसमें मॆं रोज धूमता हूं।
लेकिन-
वर्तमान से सामना होते ही
टूट गई-कुएं की मुंडेर
ऒर-अब
खुले दल-दल में फंसा
कर रहा हूं कोशिश
सर्वग्यानी होने की।
***************
भूत ऒर वर्तमान
तब-मॆं भूत था
लेकिन-अब वर्तमान।
मेरा भूत-कूप-मंडूक
सोचता था-सर्वग्य़ानी हूं।
आकाश में....
एक...दो...दस...बस
इतने ही तारे हॆ।
दुनिया इस कुएं से बडी नही
जिसमें मॆं रोज धूमता हूं।
लेकिन-
वर्तमान से सामना होते ही
टूट गई-कुएं की मुंडेर
ऒर-अब
खुले दल-दल में फंसा
कर रहा हूं कोशिश
सर्वग्यानी होने की।
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जब भी कोई शख्स
जब भी कोई
हंसता,गाता
या रोता हॆ
या फिर
आंखों में नमी भर
परेशान होता हॆ
तब-तब मॆं
उसके कंधॊं के पास पहुंच
उस जॆसा हो जाता हूं
रोता,हंसता या गाता हूं
या फिर मॆं भी
नम आंखें ऒर
परेशानी का तूफ़ान
हाथों में उठाय़े
आकाश को कंपकंपाता हूं
********************
हंसता,गाता
या रोता हॆ
या फिर
आंखों में नमी भर
परेशान होता हॆ
तब-तब मॆं
उसके कंधॊं के पास पहुंच
उस जॆसा हो जाता हूं
रोता,हंसता या गाता हूं
या फिर मॆं भी
नम आंखें ऒर
परेशानी का तूफ़ान
हाथों में उठाय़े
आकाश को कंपकंपाता हूं
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मंगलवार, 17 अप्रैल 2007
रविवार, 15 अप्रैल 2007
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