परिचय

रविवार, 30 सितंबर 2007

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शनिवार, 22 सितंबर 2007

दॊडो ! दॊडो !! दॊडॊ !!!

दॊडो ! दॊडो !! दॊडो !!!
ऎ नालायक घोडी-घोडो
देश के लिए दॊडो
दॊडॊ ! दॊडो !! दोडो !!!

कभी गांधी के लिए दॊडो
कभी नेहरू के लिए दॊडो
अपनी टांगे तोडो
दॊडो ! दॊडो !! दॊडो !!!

चोरों के लिए दॊडो
रिश्वतखोरों के लिए दॊडो
आपस में सिर फोडों
दॊडो ! दॊडो !! दॊडो !!!

बिरला के लिए दॊडो
टाटा के लिए दॊडो
ऎ भूखे-नंगे निगोडो
दॊडो ! दॊडो !!दॊडो !!!

व्यभिचारी के लिए दॊडो
आत्याचारी के लिए दॊडो
बेकारी से मुंह मोडो
दॊडो ! दॊडो !! दॊडो !!!

राजा के लिए दॊडो
रानी के लिए दॊडो
जनता की बातें छोडो
दॊडो ! दॊडो !! दॊडो !!!

मुर्दों के लिए दॊडो
खुदगर्जॊं के लिए दॊडो
शहीदों से नाता तोडो
दॊडो ! दॊडो !! दॊडो !!!

दॊड हर सवाल का हल
गरीबी पुर्वजन्मों का फल
अपनी-अपनी किस्मत फोडो
दॊडो! दॊडो !! दॊडो !!!

हॆ शरीर में जब तक रक्त
ठहर न जाये जब तक वकत
ऎ ठोकर खाये पथ के रोडो
दॊडो ! दोडो !! दोडो !!!
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सोमवार, 17 सितंबर 2007

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गुरुवार, 13 सितंबर 2007

अंग्रेज चले गये ?

’अंग्रेज चले गये’
’अब हम आजाद हॆं’
-दादाजी ने कहा
-पिता ने भी कहा
- मां ने समझाया
- भाई ने फटकारा
लेकिन वह-
चुप रहा।
दादाजी ने-
घर पर/ दिन-भर
अंग्रेजी का अखबार पढा।
पिता ने-
दफ्तर में/चपरासी को
अंग्रेजी में फटकारा।
मां ने-
स्कूल में/भारत का इतिहास
अंग्रेजी में पढाया।
भाई ने-
खादी-भंडार के
उदधाटन समारोह में
विलायती सूट पहनकर
खादी का महत्व समझाया।
ऒर-
उसने कहा-
’थूं’
सब बकवास हॆ।
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बुधवार, 12 सितंबर 2007

हिन्दी पखवाडा

साहब ने-
चपरासी को
हिन्दी में फटकारा
’हिन्दी-स्टॆनों’ को
पुचकारा
ऒर-कलर्क को
अंग्रेजी टिप्पणी के लिए
लताडा.
क्या करें ?
मजबूरी हॆ-
वो आजकल मना रहे हॆं
’हिन्दी-पखवाडा’.
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रविवार, 9 सितंबर 2007

Vinod Parashar

 
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शनिवार, 8 सितंबर 2007

ताजा-अखबार


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

लूट-पाट
भ्रष्टाचार
बलात्कार
बासी खबरे
ताजा अखबार
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शुक्रवार, 7 सितंबर 2007

चुप्पी


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

उन्हें-
कहने दीजिये
हमें
चुप्प रहने दीजिये.
उनका-
कुछ भी कहना-
व्यर्थ हॆ
जब तक आदमी
शतर्क हॆ.
हमारी चुप्पी का भी
एक विशेष अर्थ हॆ.
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मंगलवार, 4 सितंबर 2007

वेतन आयोग

सरकारी दफ्तर के
अफसर ऒर बाबू
जिनपर खुद सरकार का
नहीं हॆ काबू.
आजकल-
फूले नहीं समा रहे हॆं
वेतन-आयोग की राह में
पलकें बिछा रहे हॆं.
साहब का-
बुझा-बुझा चेहरा
खिला-खिला नजर आता हॆ
अधेड हॆड-क्लर्क भी
प्रेम-गीत गाता हे.
फाईलों के ढेर को देखकर
आसमान सिर पर उठाने वाला बाबू
’राम’को ’रामलाल जी’ कहकर बुलाता हॆ.
साहब की स्टॆनॊ
मन ही मन मुस्कराती हॆ
दिन में कई-कई बार
बढने वाले वेतन का
हिसाब लगाती हॆ.
सदा ऊंघने वाला चपरासी
सावधान नजर आता हॆ
’मेरे सपनों की रानी कब आयेगी तू’
यही गीत गाता हॆ.
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शनिवार, 1 सितंबर 2007

गजल - मेरे शहर को यह क्या हुआ हॆ?

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
गजल
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मेरे शहर को ये क्या हुआ हॆ
जिधर भी देखो धुंआ ही धुंआ हॆ।
मुद्दत से हॆ ख्वाईश कि गुलाब देखेंगे
मगर चमन तो मेरा सूखा हुआ हॆ.
बचपन से सीधा यहां आता हॆ बुढापा
जवानी का आना महज सपना हुआ हॆ।
सुना हॆ यहां भी रहती थी चिडिया
अब हर शाख पर उल्लू बॆठा हुआ हॆ।
किसको कहें,कॆसे कहें,मन की बात
हवा ऎसी चली हॆ कि आदमी बहरा हुआ हॆ।
खोलता नही कोई बंद खिडकियां यहां
दूरदर्शन का ऎसा सख्त पहरा हुआ हॆ।
तुम मेरी आखों में देखो तो सही
एक अरसे से तूफान ठहरा हुआ हॆ।
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