परिचय

गुरुवार, 31 जनवरी 2008

उठते हुए सवालों को अब न दाबिये

उठते हुए सवालों को अब न दाबिये
कितने गहरे हुए ज़ख्म उनको मापिये?

हर चेहरे ने ओढ़ा हॆ नकाब
कॊन किसका क़ातिल हॆ कॆसे जानिये?

ख़ुद नहीं बदला, ये मॊसम का मिज़ाज
सय किसी की हॆ ज़रुर मानिए न मानिए

लबालब भर चुका हॆ, सब्र का तालाब अब
रेत की दीवार हॆ कव तक थामिए ?

यूं अंधेरों में दम तोड़्ना मंजूर नही
एक ज़ुलूश मशालों का अब निकालिए.
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2 टिप्‍पणियां:

राजीव तनेजा ने कहा…

अच्छी गज़ल बन पड़ी है...बधाई...

बेनामी ने कहा…

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