परिचय

बुधवार, 26 अगस्त 2009

गुलाब



कई बार
चाहा हॆ
तेरे नर्म होंठों पर
रख दूं,
अपने
गर्म होंठ.
तेरी खुशबू को
बसा लूं
अपने दिल में.
ऒर पी जाऊं
तेरी सुन्दरता को
इन नयनों से
हाला समझकर.
लेकिन-
तेरे
जिस्म के चारों ओर
खडे पहरेदारों को देखकर
सहम जाता हूं
ऎ! गुलाब.

7 टिप्‍पणियां:

अनिल कान्त ने कहा…

वाह क्या खूब लिखा है आपने....उम्दा लेखन

RAJNISH PARIHAR ने कहा…

इसीलिए तो गुलाब के साथ कांटे होते है जनाब....

नीरज गोस्वामी ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना...बधाई...
नीरज

इस से अलग लेकिन कुछ मिलती जुलती सी रचना है जिसे प्रसिद्द हास्य कवी गोपाल प्रसाद व्यास जी ने लिखा है वो लिखते हैं:
"तमन्ना थी
रेशमी रुमाल बन कर
तेरे वक्ष स्थल से चिपका रहूँ
और
रह रह कर
तेरे मधुर अधरों का रस
पीता रहूँ
लेकिन
जब से तुझे जुकाम लगा है
इरादा बदल गया...:))

नीरज

Unknown ने कहा…

वाह !
बहुत ख़ूब !

विनोद पाराशर ने कहा…

गुलाब की खुशबु,आप सभी मित्रों तक पहुंची.मेरा प्रयास सार्थक हुआ.धन्यवाद !

राजीव तनेजा ने कहा…

बहुत बढिया

M VERMA ने कहा…

थोडे काँटो का प्रतिकार तो सहना ही होगा. गुलाब भी तो आतुर है