मेरे जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों की काव्यात्मक अभिव्यक्ती का संग्रह हॆ- यह ’नया घर’. हो सकता हॆ मेरा कोई अनुभव आपके अनुभव से मेल खा जाये- इसी आशा के साथ ’नया घर’ आपके हाथों में.
परिचय
रविवार, 8 अगस्त 2010
आफिस की ये फाईलें
आफिस की ये फाईलें-
मेरे सपने में आती हॆं
कभी हंसती हॆ
कभी रोती हॆ
कभी चिडाती हॆं
कभी डराती हॆं
तो कभी धमकाती हॆं.
आफिस की ये फाईलें-
मेरे सपने में आती हॆं.
ये फाईलें-
सिर्फ कागज का पुलिंदा नहीं हॆं
हर फाईल के पीछे
छुपा हॆ एक चेहरा
जो न तो गूंगा हॆ
ऒर न ही बहरा.
यह चेहरा
कभी-कभी मेरे सामने-
आकर खडा हो जाता हॆ
अजीब-अजीब सी
शक्लें बनाता हॆ.
कभी हाथ जोडता हॆ
कभी मुस्कराता हॆ
कभी रोता हॆ
कभी गिडगिडाता हॆ
तो कभी-
मुट्ठी तानकर-
खडा हो जाता हॆ.
सच कहूं-
कभी-कभी तो
मॆं बहुत छोटा
ऒर ये चेहरा-
बहुत बडा हो जाता हॆ.
+++++
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8 टिप्पणियां:
Waah Sir g!
Very humorous!
And very well written! =)
bahut khoob kavita hai aapki.Main bhi files ki chakri karti hoon aur ais anubhav mujhe bhi hota hai!
कार्यालयी फाईलों को निपटाते निपटाते सपनों में आना और फिर चेहरा बन जाना ....
बहुत सुन्दर
.
शुक्र है, मेरा कभी पाला नहीं पड़ा इन फाइलों से।
Nice creation, quite realistic !
.
नया वर्ष मुबारक हो
सपने सिर्फ आपको नहीं
फाईलों को भी आते हैं
बस वे यही बात किसी को
नहीं बताती हैं
उनका अहसान मानिए
पाराशर भाई
हिन्दी भवन में आपसे मुलाकात अच्छी लगी । आपने मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी भी की थी जो आज मैंने देखी ।
"सच कहूं-
कभी-कभी तो
मॆं बहुत छोटा
ऒर ये चेहरा-
बहुत बडा हो जाता हॆ"
"वाह" विनोद जी
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