परिचय

रविवार, 30 दिसंबर 2007

मॆं ऒर तुम

मॆं-नहीं चाहता
कि तुम
ऒपचारिकता का लिबास पहनकर
मेरे नजदीक आओ.
अपने होठों पर
झूठ की लिपिस्टिक लगाकर
सच को झुठलाओ
या देह-यष्टि चमकाने के लिए
कोई सुगंधित साबुन
या इत्र लगाओ.
मॆं-चाहता हूं
कि तुम
अपनी असली झिलमिलाहट के साथ
मुझसे लिपट जाओ.
मेरे सुसुप्त भावों को
कामदेव-सा जगाओ
ओर फिर-
दो डालें
हवा में लहराने लगें
होती हुई एकाकार.
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3 टिप्‍पणियां:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

विनोद जी
बहुत भाव पूर्ण रचना. शब्द और भाव का अद्भुत समन्वय. वाह. आप के ब्लॉग पर आ के अच्छा लगा. लिखना मुझे भी पसंद है लेकिन ग़ज़ल के नियम कायदे पूरी तरह समझ न आने के कारण किसी को सुनाने में हिचकता हूँ सो अपने ब्लॉग पे पोस्ट कर देता हूँ.
ऐसे ही लिखते रहें.
नीरज

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर व भावपूर्ण रचना है।बहुत बढिया लिखी है।बधाई।

ghughutibasuti ने कहा…

बहुत सुन्दर !
नववर्ष की शुभकामनाओं सहित,
घुघूती बासूती